खुद से बात (3)
कुछ खास सी बात थी उसमें। जैसे कोई कशिश हो। खींच रही थी मुझे उसकी ओर। मन की बेसब्र तितलियाँ अपने पँख फैला उसकी रंग भरी अदाओं का पुष्प रस लेने को उस पर मंडराना चाहती थी। खिलना चाहती थी वो मासूम कलियाँ जो कब से मेरे ज़हन में एहसासों का बीज बन तन की गहरी मिट्टी तले दबी हुई थी।
वो जो कुछ अनमना, आवारा बादल जैसा संसार के नील गगन में झूमता फिर रहा था। इस बात से पूरी तरह अनजान कि कभी उसे भी बरसात बन बरसना होगा, किसी पर, किसी और के लिए।
समीपता की वो अनुभूति, उस दिन पूर्ण कर जाएगी मुझे, जब सावन के नीर से भीग कर, मिट्टी में दबे वो बीज फूल बनेंगे, और उस मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू आएगी।
रजनी अरोड़ा